Friday 19 February 2016

Main Nikloonga

Main Nikloonga
By Maryam ‘Ghazala’  from the anthology ‘Wajood ka Sehra’
(facebook.com/maryamgazlapage Maryam.gazala@gmail.com)

तेरी रहमत से गर मैं शौके-इर्फानिसे निकलूँगा
ख़ुदाया मैं उसी दिन चाक दामनी से निकलूँगा

हदें फिर सारी दुनिया की पिघल जाएँगी इक पल में
मेरी बेबाक ज़िद है क़ैदे-रस्मानी से निकलूँगा

फलक आग़ोश में होगा सितारे मेरी मुट्ठी में
किसी दिन देखना दीवारे-ज़िन्दानी से निकलूँगा

बहाए लाख आँसूं कुछ न सोज़े-दिल को चैन आया
न जाने कब मैं अपनी सोख्ता-जानी से निकलूँगा

बिखेरूँगा मसर्रतका उजाला सारी महफिल में
ज़िया बन कर किसीकी ख़न्दा पेशानी से निकलूँगा

हूँ ख़िज्रे-राह लेकिन अब ज़रुरत किसको है मेरी
ख़ुदाया, कब अज़ाबे-उम्रे-तूलानी से निकलूँगा

मैं हूँ तहज़ीब का परचम लहू में आज हूँ डूबा
किसी दिन मैं मगर वहशत की उर्यानी से निकलूँगा

हज़ारों मुन्तज़िर राह जाएँगे उन शाहराहों पर
मगर चुपचाप मैं इक राहे-अन्जानी से निकलूँगा

फक़ीराना गुज़ारी ज़िन्दगी शुक्रे-खुदाई में
सफ़र को आखरी अब रौबे-शाहानी से निकलूँगा

तनफ्फुस से हैं वाबिस्ता ‘ग़ज़ाला’ मुश्किलें सारी
दमे-आख़िर मैं बाहिचकी परेशानी से निकलूँगा

सुपुर्दे – ख़ाक होकर ख़ाक-दामानी से निकलूँगा
गुलाबों की तरह मैं हुक्मे – नूरानी से निकलूँगा

गिरूँगा सीप मैं नायाब गौहर बन चमकना है
मुबारक वक़्त पर मैं अब्रे – बारानी से निकलूँगा

मेरी फितरत नहीं सोचूँ बुरा औरों के बारे में
दुआ बनकर सदा ही दस्ते – रहमानी से निकलूँगा

पुराने इन रिवाजों के खन्डहर पलमें गिरा दूँ मैं
हूँ वह जोशे-जवानी नफ्से – तूफानी से निकलूँगा

मिटा दूँगा ज़मीनों से गुनाहों की मैं सब फसलें
ग़ज़ब रूहानी बन मैं क़हरे – रब्बानी से निकलूँगा

मसर्रत हूँ जो मिट्टी जज़्ब कर लेती है सुरजसे
हरे मैदान की मैं चुनरी धानी से निकलूँगा

झुका लेंगे निगाहें सूरमा भी सामने मेरे
चमक बन कर अगर मैं चश्मे ख़ूबानी से निकलूँगा

उसूलों से तुम्हारे खोखले बाँधो न तुम मुझ को
मैं मुरझा जाऊँगा जो अपनी मनमानी से निकलूँगा

अबद से ता अजल तक हूँ मुसलसल एक मैं हरकत
ये मुमकिन ही नहीं मैं गर्म - रक्सानी से निकलूँगा

‘ग़ज़ाला’ इस जहाँ को अपनी रंगीनी से दूँगा भर
ताख़ैय्युल की तरह जो ज़हने – इन्सानी से निकलूँगा

(page 11, Wajood ka Sehra)

अबद की राह पर पैक़रे फानी से निकलूँगा
मैं वह मा’नी हूँ जो इक लाफ्ज़े – बेमानी से निकलूँगा

मैं क़ुदरत का करिश्मा हूँ अजब है दीदनी मंज़र
हूँ तिनका घास का पत्थर की पेशानी से निकलूँगा

वह आँधी हूँ नीता दूँ जो भी आए सामने मेरे
मैं वह तैराक हूँ दरिया-ए-सीलानी से निकलूँगा

अँधेरी रात की दीवार रोकेगी भला कब तक
मैं सूरज बनके हर दम सुबहे – नूरानी से निकलूँगा

किसी सूफी की तरह ढूँढने निकलूँगा जब तुझको
सवालों की झड़ीसा चश्मे-हैरानी से निकलूँगा

ग़मों की धूप सह कर भी मैं पत्थर बन नहीं सकता
मैं वह हमदर्द हूँ हर आँख के पानी से निकलूँगा

अँधेरा हूँ जलने से मिटा हूँ कब भला सोचो
धुआँ बनकर चराग़ों की मैं ताबानी से निकलूँगा

वगरना किसकी ताकत जो निकले मुझको जन्नत से
मैं आदम हूँ  फ़क़त हव्वा की नादानी से निकलूँगा

हर इक दिल को जो छू लेता है वह लफ्ज़े-मोहब्बत हूँ
हर इक बोली से निकलूँगा, हर इक बानी से निकलूँगा

वह झरना हूँ ‘ग़ज़ाला’ रेट के नीचे दबा है जो
इशारों पर फरिश्तों के मैं फर्मानी से निकलूँगा

गुलेतर हूँ बहारों की गुल-अफ्शानी से निकलूँगा
ख़ज़ाना इल्मका हूँ ज़हने-फर्ज़ानी से निकलूँगा

किसी ग़म दीदा आँखों से गिरुं जो अश्क़ बनकर मैं
उठा लेगी हवा मैं अब्रे-नैसानी से निकलूँगा

पुकार उठे फ़रिश्ते भी जिसे सुनकर अमानुल्ला
दुआ बन कर शकिस्ता क़ल्बे-रिन्दानी से निकलूँगा

तुम्हारे मनकी मिट्टीमें जड़ें फैली है सदियों से
मैं वह नाफ्राटका पौधा हूँ न आसानी से निकलूँगा

फसीलों को ख़ूदीकी तोड़ कर मैं देखना इक दिन
ख़ुद अपने क़ैदख़ाने की निगेहबानी से निकलूँगा

हज़ारों मंज़िलें हैं आसमाँ दर आसमाँ मेरी
फना की नेअमतें पाने मैं लाफानी से निकलूँगा

लिए कश्कोल हाथों में कमर पर एक लंगोटी
फलक को चूमता इस क़सरे-सुल्तानी से निकलूँगा

मैं मूसा हूँ लिए लाठी उतर जाऊँगा दरियामें
बना कर रास्ता मैं हुक्मे-रब्बानी से निकलूँगा

मोहब्बत की सड़क पर अक्ल की दीवार क्या मा’नी
उसे पाना है तो हर फल्सफादानी से निकलूँगा

जला सकती तो है मुझको मिटा सकती नहीं लेकिन
‘ग़ज़ाला’ बनके उनका सौज़े-पिन्हानी से निकलूँगा

मुसाफिर हूँ किसी दिन तो परेशानी से निकलूँगा
ख़ुदी के बेकराँ इस दश्त-ए-हैरानी से निकलूँगा

समझ लो मेरे मरने का तमाशा देखनेवालों
अगर ख़ुश्की में डूबूँगा तो तुग़ियानी से निकलूँगा

बसाऊँगा मैं आईने हज़ारों मेरे चेहरों से
किसी दिन जिस्मे-बेचेहरा की वीरानी से निकलूँगा

किसी ज़रखेज़ मिट्टी से मैं अपना जोड़ने नाता
तुम्हारे क़‌‍‍‍‌‌सर की इस साजों-सामानी से निकलूँगा

मिटा सकते नहीं तुम हर्फे बातिल की तरह मुझको
वह अनमिट हर्फ हूँ कल्बे-रूहानी से निकलूँगा

ज़माने की मुझे मक्कारियों में तुम न पाओगे
मैं वह मासूमियत हूँ लफ्ज़े-तिफ्लानी से निकलूँगा

ठिठुरते गाँव को बख्शूंगा मैं गर्मी-ए-रूहानी
मैं वह शोला हूँ जो चट्टाने-बर्फानी से निकलूँगा

करिश्माती किसी चाबीसे सारे खोल कर ताले
पुराने वहमो-ग़फ्लत के मैं ज़िन्दानी से निकलूँगा

करोड़ों गुल-बदामाँ लोग मेरे मुन्तजिर होंगे
मक़ामे-शौक से जब उसकी फर्मानी से निकलूँगा


‘ग़ज़ाला’ मौत भी मुझ को रिहाई दे न पाएगी
न मैं आनी से निकलूँगा न मैं जानी से निकलूँगा

लिबासे-अनवरी में क़िस्रे-ऐवानी से निकलूँगा
ख़ुदी की पालकी में रश्के-रिज़वानी से निकलूँगा

जहाँ पहुंचूं बना दूँ ख़ार को गुल, मिट्टी को सोना
मैं वह पैग़ाम हूँ लबहाए-दहकानी से निकलूँगा

दिशाएँ बाँध पाएंगी  मुझे क्या अपनी बाँहों में
फसीले-वक्त की मैं जब असीरानी से निकलूँगा

बहा ले जायेगा सैलाब खूँ का गाँव खेतों को
रुकूँगा किस तरह जो ज़ख्मे-ख़न्दानिसे से निकलूँगा

मुझे क्या मौत मारेगी हयाते जावेदाँ पाने
पिए आबे बक़ा दरिया-ए-हैवानी से निकलूँगा

भुला दूँगा सभी वह पाठ नफरत के जो सीखे थे
मैं पंडित और मुल्ला की दबिस्तानी से निकलूँगा

उसी दम तोड़ डालूँगा मैं घरके आईने सारे
की जब अपने बदन की मैं बयाबानी से निकलूँगा

संभल जाओ, समझ जाओ, ए दुनिया के निगहबानों
मैं वह शोला हूँ जो फितना-ए-दौरानी से निकलूँगा

वो पौधा हूँ छुपा हूँ बीज में मिट्टी तले बरसों
मैं सूरज की मुसलसल नूर-अफ्शानी से निकलूँगा

सजा कर ऐश के सामाँ   ‘ग़ज़ाला’ मौज मस्ती में
मसर्रत की सड़क पर यासो-हिर्मानी से निकलूँगा

रुकूँगा फिर नहीं युँ गर्म रक्सानी से निकलूँगा
मगर यह शर्त है पैरों की जूलानी से निकलूँगा

अज़ाखाने में दिल के कब से हूँ मातम जदह या रब
ख़ामोशी छाएगी जब दश्त-ए-इम्कानी से निकलूँगा

किताबों में बना कर दास्ताँ मुझको छुपाया है
किसी आलिम के हाथों ताक़े-निसीयानी से निकलूँगा

शुआ बन कर मैं सूरज की न झुलसा पाऊँगा तुमको
हूँ वह शीतल उजाला माहे-ताबानी से निकलूँगा

सजा दूँगा धरा की गोद में खतों के मैं मख़ज़न
मैं रहमत बनके हरदम बादो-बारानी से निकलूँगा

मुझे तदबीर की कंघीसे तुम सुलझा नहीं सकते
वो ख़म हूँ जाने कब गेती-ए-पैचानी से निकलूँगा

यक़ीनन देखनेवालों का इमाँन डगमगा जाए
चमक हूँ मैं अगर लाले बद्ख्शानी से निकलूँगा

शबिस्ताँ है कि रेगिस्तान नींदें हैं कि मृगजल हैं
नहीं मालूम कब शब् की बयाबानी से निकलूँगा

मुझे ए हमनशीनों संगे-इर्फानी से चौंकाना
न जाने कब मैं इस ख्व़ाब-ए-परेशानी से निकलूँगा

‘ग़ज़ाला’ आसमानों से ज़मीं पर आएगी जन्नत
दुआ बन कर मैं दस्ते-यज़दानी से निकलूँगा